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कभी यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बीएसपी आज हाशिये पर क्यों?

 29 Apr 2024

दलित समाज़ को नयी राजनीतिक शक्ति देने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) इन दिनों अपनी राजनीतिक पहचान बचाने का संघर्ष करती दिख रही है। बीते कुछ सालों से बीएसपी की अध्यक्ष मायावती शायद ही किसी बड़ी राजनीतिक बहस का हिस्सा रहीं हो। 1984 से बसपा के रूप में सामने आये इस राजनीतिक दल की कल्पना कांशीराम ने दलितों की ताक़तवर आवाज़ के रूप में की थी। अब सवाल ये है कि क्या मायावती कांशीराम द्वारा स्थापित इस पार्टी के मूल उद्देश्यों को आगे बढ़ा पा रही हैं या नहीं?

   

यूं तो मायावती चार बार उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, लेकिन 1995, 1997 और 2002 में बीजेपी के सहयोग से सरकार बनाने वाली मायावती अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं। चौथी बार बतौर मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपना कार्यकाल मुख्यमंत्री के तौर पर पूरा किया था। 2007 में बीएसपी को यूपी में पूर्ण बहुमत मिला था और 2012 तक मायावती की सरकार चली थी।

2007 से लेकर 2012 का दौर मायावती के लिए राजनीतिक शिख़र का दौर रहा था। दिल्ली की गलियों में नारा गूंजने लगा था ‘यू.पी तो हुई हमारी, अब है दिल्ली की बारी’, लेकिन उसके बाद बसपा की तरफ़ से दिल्ली की सत्ता का नारा शायद ही दिया गया हो। बसपा के कार्यकर्ताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं तक बार-बार यह सुनने को मिलने लगा की चुनावों में मायावती की तरफ़ से कोई ठोस तैयारियां नहीं की जा रही हैं। मायावती के पास कार्यकर्ताओं और नेताओं से मिलने तक का समय नहीं है।

लोकसभा चुनाव 2024 में मायावती ने अकेले लड़ने का फ़ैसला किया है। मायावती का कहना है कि 2019 में लोकसभा चुनाव में जब उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था तो उनको 10 सीटें ही मिली थीं।  लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही बसपा के सांसद पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गये हैं, लेकिन क्यों? खबरों के अनुसार, मायावती के पास अपने सांसदों से मिलने तक का वक़्त नहीं है। बसपा के कई बड़े-बड़े नेताओं ने बसपा को छोड़ दूसरी राजनीतिक पार्टियों का सहारा लिया या बदलने के रास्ते पर हैं, चाहे वो उत्तर-प्रदेश के अंबेडकर नगर से दिलीप पांडे रहे हों या अमरोहा से दानिश अली।

मायावती ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कई बार कहा है कि उनकी पार्टी से उन्हीं व्यक्तियों को टिकट दिया जायेगा, जिन्होंने जनता और पार्टी की नीतियों के हिसाब से काम किया होगा। लेकिन मायावती अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को मिलने का समय क्यों नहीं दे रहीं है। और अगर मायावती समय दे रहीं है तो फिर पार्टी से जुड़े लोग शिक़ायत क्यों कर रहे हैं?

2014 में बसपा जब अकेले लोकसभा के चुनावों में उतरी थी तो एक भी सीट नहीं मिली थी। 2019 में सपा से गठबंधन करके बसपा ने 10 सीटें जीती लेकिन फिर फिर आरोप लगाते हुए कहा था कि बिना गठबंधन के बसपा और भी सीटें जीत सकती थी। 2022 में बसपा उत्तर-प्रदेश के चुनावों में अकेले लड़ी लेकिन बस एक ही सीट जीत पायी।


आख़िर कभी बहुजन आंदोलन का प्रतीक बनी बीएसपी अचानक हाशिये पर कैसे चली गयी। मायावती पर  बीते कुछ समय से यही आरोप लग रहा है कि बसपा ज़मीनी स्तर पर वैसा काम नहीं कर पा रही है, जैसा कि एक ज़माने में मिशन के रूप में वह करती थी। बीजेपी के केंद्र और यूपी में क़ाबिज़ होने के बाद बतौर विपक्षी दल पार्टी ने संघर्ष की जगह समर्पण का रास्ता अपनाये रखा है। 


क्या बसपा मात्र वोटरों के ध्रुवीकरण तक सीमित रह गयी है?

आरोप यह भी लगता है कि बीएसपी विपक्षी एकता के ख़िलाफ़ काम कर रही है। गठबंधन का वोट काटने के लिए अलग उम्मीदवार खड़े किये गये जिसका फ़ायदा भाजपा को हुआ है। मायावती की उदासीनता की वजह से दलितों में भी निराशा है। दलितों के वोट बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा में बंट जाते हैं। माना जाता है कि बसपा अब तभी मज़बूत स्थिति में आ सकती है जब वह अपने पारंपरिक वोटरों से हटकर अन्य लोगों तक भी पहुंचे।

साल 2022 में उत्तर-प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर मात्र 12 फ़ीसदी था। जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से उत्तर-प्रदेश में मात्र दलितों (अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति) की संख्या 20 फ़ीसद है। तो सवाल ये उठता है बाकी दलितों का वोट किधर जा रहा है और इसका फ़ायदा किसे मिल रहा है।बीएसपी के पास ज़्यादातर सिर्फ़ मायावती की जाति के वोट बचे हैं। गैर जाटव दलित वोट दूसरी पार्टियों की ओर रुख कर गये हैं। हद तो ये है कि कभी कांशीराम के सहयोगी रहे तमाम गैरजाटव दलित नेता सपा और कांग्रेस में नज़र आ रहे हैं।

क्या बसपा सुप्रीमो मायावती को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) या अन्य जाँच एजेंसियों का ड़र है?  इस बात पर अब बीएसपी के आलोचक ही नहीं, समर्थक भी यकीन करने लगे हैं। वरना क्या वजह है कि जब आरएसएस हिंदू राष्ट्र बनाने या संविधान के बदलने का प्रोजेक्ट चला रहा है, या ऐसा कहा जा रहा है, तो मायवाती इसका मुखर विरोध करने की जगह बयान देने की औपचारिकता ही निभा रही हैं। क्या उन्हें याद नहीं कि ़डॉ.आंबेडकर ने कहा था कि अगर हिंदू राष्ट्र बना तो यह लोकतंत्र के लिए विपत्ति होगी। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए।